कश्मीर फाईल सच और झूठ
भूपेंद्र गुप्त
भारत में झूठ बोलने वाली शक्तियां अफवाहें फैलाने में इतनी सक्षम हो चुकी हैं कि वे बिल्कुल निकट के इतिहास पर भी अफवाहों और झूठ की धूल फेंक कर अपनी राष्ट्रीय जिम्मेवारी से बच निकलती हैं।वे उन लोगों को बदनाम करती हैं जिन्हें बाद में बदतर हालातों को सामान्य बनाने में ही अपनी सारी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। अफवाह फैलाने वाली ये शक्तियां अगर अपने घृणित मंसूबों में सफल होती रहीं तो शायद लोकतंत्र के समाप्त होने में अधिक समय नहीं लगेगा ।आज जरूरत है कि हमने 75 साल में जिस लोकतंत्र को विश्व के सामने एक उच्च मानवीय उदाहरण की परिपक्वता के रूप में स्थापित किया है उसे हम सब मिलकर जहरीले वातावरण से बाहर निकालें।
आज 32 साल पुरानी कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की कहानी को फिर से सुर्खियों में लाने की चेष्टा की जा रही है। फिर आधे आधे अधूरे घटनाक्रम को चित्रित कर एक फिल्म कश्मीर फाइल के माध्यम से इस दुष्प्रचार अभियान को स्थापित किया जा रहा है जिसके तथ्यों में इतनी असत्यता है कि एक सैन्य अधिकारी की पत्नी को उसके शहीद पति का झूठा चित्रण करने के कारण फिल्म निर्माता पर मुकदमा दायर करना पड़ा है।
कश्मीरी पंडितों का विस्थापन और संहार एक राष्ट्रीय त्रासदी है मानवता पर एक बर्बर हमला है, लेकिन इसके दोषी कौन हैं?उनकी असलियत क्या है ?
कश्मीर में 1989 में टीकालाल टप्लू की हत्या से यह अनाचार शुरू हुआ ।तब केंद्र में भाजपा समर्थित वी पी सिंह सरकार थी , केंद्र में कश्मीरी गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद थे। जब भी कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की कहानी सामने लायी जाती है, तो कुटिल बुद्धिजीवी इन तथ्यों को छुपाते हैं। वे वास्तविक घटनाओं को सामने नहीं रखते। न ही उन लोगों की चर्चा करते हैं, जो उस समय जिम्मेदारी के पदों पर बैठे हुए थे तथा कानून व्यवस्था के लिये सीधे जिम्मेदार थे। कश्मीर में सबसे जघन्य घटना 19 जनवरी 1990 को घटित हुई थी जब कश्मीरी पंडितों पर जानबूझकर और चिन्हित कर कर के हमले किए गए थे। उन्हें मजबूर किया गया था कि वे अपना घर और घाटी छोड़ दें। जब यह घटनाएं घट रही थी तब गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद संभालने में असफल रहे और राज्यपाल जगमोहन के नेतृत्व में राष्ट्रपति शासन लगाया गया। आगे जाकर यही जगमोहन भाजपा की अटल सरकार में शहरी विकास मंत्री बने। यानि जब कश्मीरी पंडितों पर हमले हुए थे ,तब जो लोग इसे रोक सकते थे ,वे या तो भाजपा समर्थित सरकार के गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद थे ,बाद में जिनकी बेटी रूबिया की रिहाई के बदले में सरेआम आतंकी छोड़े गए थे या राज्यपाल जगमोहन जो उस समय राष्ट्रपति शासन के सर्वेसर्वा थे। वे अपने आपको कश्मीर की समस्याओं के विशेषज्ञ के रूप में प्रचारित भी करते थे ।
सबसे सक्षम व्यक्ति होते हुये भी वे इस नरसंहार को रोकने या उस पर काबू पाने या कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा देने में बुरी तरह असफल हुए । कह सकते हैं कि वे उदासीन थे ।जब स्थितियां नियंत्रण से बाहर और भयावह हो गई ,तब अंतत: उन्हें 26 मई 1990 को हटाना पड़ा।
दूसरी ओर मुफ्ती मुहम्मद सईद भी कश्मीर के बिगड़े हुए हालातों पर काबू पाने की बजाय, अलगाववादियों के समर्थक के रूप में उभरे। आगे जाकर इन्हीं मुफ्ती साहब के नेतृत्व में भाजपा और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की गठबंधन सरकार बनी जिसमें 2015 में वे मुख्यमंत्री बने।भाजपा ने यह आज तक स्पष्ट नहीं किया है कि उसने किस मजबूरी में इस नरसंहार के जिम्मेदार तत्कालीन गृहमंत्री को अपना मुख्यमंत्री मान लिया ।उसके साथ मिलकर सरकार बनाई। क्या यह कश्मीरी पंडितों के दु:ख और त्रासदी का भद्दा मजाक नहीं था ?
अगर इतिहास में झांकें तो आजादी मिलने के पहले भी 1931 में डोगरा हिन्दुओं पर कश्मीर में व्यापक रूप से हमला हुआ था। उन्हें लूटा गया था ,उनकी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया गया था। तब वहां डोगरा राजा हरी सिंग का राज था। उसके बाद 1947 में भी ये हमले फिर हुए तब कश्मीर की कुल आबादी में डोगरों की संख्या 15 प्रतिशत थी।जिसमें पाकिस्तानी सेना के लोग प्रमुख रूप से शामिल थे।तब राजा हरिसिंह असमंजस में थे कि वे अपनी रियासत का विलय पाकिस्तान में करें या भारत में । वे इस आशय का पत्र पाकिस्तान सरकार को दे भी चुके थे कि वे पाकिस्तान में शामिल होंगे किंतु उसे उन्होंने होल्ड पर रखा था। तभी पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। जब हमला हुआ था, उस समय तक राजा हरिसिंह भारत में विलय का मन नहीं बना पाए थे। लेकिन जब रियासत को बचा पाना उनके बूते से बाहर चला गया, तब उन्होंने भारत से सहायता की याचना की और भारत में विलय की मंशा जाहिर की। राजा हरिसिंह की सहमति मिलते ही भारत की सेना ने कश्मीर कूच किया ।
तब तक पाकिस्तानी सेना मिश्रित कबायली हमलावर श्रीनगर से मात्र 7 किलोमीटर की दूरी तक पहुंच चुके थे। भारत के बहादुर सैनिकों ने पाकिस्तानियों को खदेड़ा और श्रीनगर पर नियंत्रण को स्थापित किया। आगे क्या हुआ यह इतिहास का वह हिस्सा है, जिसे सभी जानते हैं। कश्मीरी पंडितों पर 1990 के बाद उस समय फिर से तीखे हमले हुए,जब 7 पंडितों को संग्रामपुरा में निर्दयता से मारा गया । तब भी केंद्र में देवेगौडा की सरकार थी तथा कम्युनिस्ट पार्टी के ओर से इन्द्रजीत गुप्ता गृह मंत्री हुआ करते थे। इसके बाद देश में 2 और बड़े हमले कश्मीरी पंडितों पर 1998 से 2003 के बीच में हुए। जिनमें क्रमश: 23 और 24 पंडितों की हत्या की गयी। इन दोनों घटनाओं के समय भी अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार थी तथा लालकृष्ण आडवानी गृह मंत्री थे। ये घटनाएँ बताती हैं कि कश्मीरी पंडितों पर हुए सबसे बड़े हमले में जिसमें लगभग साढ़े तीन लाख कश्मीरी पंडित विस्थापित हुए थे और लगभग 300 लोग मारे गए थे, से लेकर 2003 तक की घटना तक, जिसमें 24 पंडितों की हत्या की गयी, कश्मीर में भाजपा या उसकी समर्थित सरकारें ही निर्णायक सरकारों का हिस्सा थीं। तब इस नरसंहार के लिए कांग्रेस को क्यों जिम्मेदार बताया जा रहा है? इन नरसंहारों की जिम्मेदारी लालकृष्ण अडवाणी, अटलबिहारी बाजपेयी, मुफ्ती मुहम्मद सईद या जगमोहन की ही थी। ये वही लोग हैं, जो घटना के समय सीधे सत्ता में थे और अमन कायम करना इनकी पहली जिम्मेदारी थी।
हैरानी की बात तो यह है कि जब अटलबिहारी सरकार में लालकृष्ण आडवानी गृह मंत्री थे, तब 11 जून 1999 को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग कश्मीर में इस नरसंहार की जाँच करने भेजा गया था। उसने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इसके बावजूद कि कश्मीरी पंडितों पर ज्यादतियां हुयीं हैं, यह मात्र अत्याचार ही था, इसे जनसंहार (जेनोसाइड) नहीं माना जा सकता। आज कितने कश्मीरी यह बात समझने के लिये तैयार हैं कि यह निष्कर्ष टीकालाल टप्लू, जस्टिस नीलकांत गंजू, कवि सर्वानन्द कौल,एडव्होकेट प्रेमनाथ भट्ट तथा लासा कौल के बलिदान को अपमानित करने वाला निष्कर्ष है। क्या तत्कालीन भाजपा सरकार ने इन निष्कर्षों पर अपनी आपत्ति दर्ज करायी थी ? नहीं करायी ! तो क्यों ? क्या यह भी सच नहीं है कि राज्यपाल जगमोहन जिस सरकार के प्रमुख थे, उसने अधिकृत तौर पर केवल 219 पंडितों की ही हत्या को स्वीकार किया था, जबकि कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति 399 पंडितों की हत्या को मानती है। एक अन्य सर्वेक्षण हत्या के आंकड़े को 302 मानता है। फिर किन तथ्यों के आधार पर भाजपा और संघ के नेता इस संख्या को कई लाखों में प्रचारित कर देश को भ्रमित करते घूमते रहे हैं।
यह शोध का विषय है। जब भी इन अराजक परिस्थितियों के बाद आई अन्य सरकारों ने परिस्थितियों को सामान्य बनाने में अपनी ताकत लगायी, तो उल्टे उन्हें ही बदनाम किया गया। कश्मीर के हालातों को पुन: बदतर बनाया भाजपा और मेहबूबा मुफ्ती ने क्योंकि जिन अराजक पत्थर गेंग को पूर्व सरकारों ने जेल में डाला हुआ था, उन्हें मुफ्ती-मोदी सरकार के आते ही जेल से छोड़ दिया गया । उन्हें पुन: संगठित होने का भरपूर मौका और पोषण मिला। जिन्हें जेल से छूटकर वे छोटे सी समयावधि में इतने संगठित हो गए कि बुरहान बानी की अंतिम यात्रा में लाखों की संख्या में इक_े हुए। क्या जाँच नहीं होना चाहिए कि इतनी जल्दी वे इतनी ताकत जुटाने में कैसे सफल हुए? कि राष्ट्रवाद का दम भरने वाले नेता ही बुरहान वाणी की मौत को धोखे में उठाया गया कदम बताने लगे? क्या भाजपा के उपमुख्यमंत्री यह नहीं कह रहे थे कि अगर पता होता कि बुरहान वहां है तो वे विकल्प पर विचार करते।क्या यही
उनका तथाकथित राष्ट्रवाद है ? या ये तथाकथित राष्ट्रवादी देशद्रोहियों के सामने घुटना टेक हो चुके थे ?
आज देश को यह विचारने की आवश्यकता है कि समय जो घाव भर देता है उसे झूठ के चाकू से कुरेदा जाना व्यापक समाज के संतुलन पर हमला है जो संभवत: आगामी चुनावों की चौसर पर बिछाया जा रहा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)