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व्यक्ति को अमृत कर देती हैं भावनाएं

योगेन्द्र नाथ शर्मा ‘अरुण’

सच मानिए, भावना व्यक्ति को अमृत कर देती है। जिन्हें इस सच पर विश्वास न हो, वे श्रीकृष्ण और सुदामा की उस मुलाकात को याद कर लें, जब अपने बाल-सखा सुदामा के चरणों को द्वारिकाधीश ने आंसुओं के गंगा-जल से धोया था। याद कीजिए पन्ना धाय के उस त्याग को, जिसके बल पर उसने राजकुंवर को बचाने के लिए अपना पुत्र शत्रुओं को सौंप दिया। त्याग की भावना को विश्व की सर्वोच्च पावनतम भावना माना गया है। संत तिरुवल्लुवर का कथन है ‘जिन्होंने सब कुछ त्याग दिया, वे मुक्ति के मार्ग पर हैं, बाकी सब मोहजाल में फंसे हुए हैं।’ और कविकुल गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं कि ‘प्रेम के बिना त्याग नहीं होता और त्याग के बिना प्रेम असंभव है।’ त्याग की भावना पर मुझे कविवर गजानन माधव मुक्तिबोध की पंक्तियां याद आती हैं। वे कहते हैं :-
‘अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया?
ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे! जीवित रह गए तुम?’

आज मुझे इसी ‘त्याग-भावना’ पर मेरे एक आत्मीय ने ऐसी पोस्ट भेजी है।
‘शहर के एक अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि के विद्यालय के बग़ीचे में तेज़ धूप और गर्मी की परवाह किये बिना, बड़ी लगन से पेड़-पौधों की काट-छांट में वह लगा हुआ था कि तभी विद्यालय के चपरासी की आवाज़ सुनाई दी, अरे! गंगादास! तुझे प्रधानाचार्या जी तुरंत बुला रही हैं।’ गंगादास शीघ्रता से उठा, हाथों को धोकर साफ़ किया और तेजी से प्रधानाचार्या के कार्यालय की ओर चल दिया। गंगादास एक ईमानदार कर्मचारी था और अपने कार्य को पूर्ण निष्ठा से पूर्ण करता था। वह प्रधानाचार्या के कार्यालय पहुंचा, ‘मैडम, क्या मैं अंदर आ जाऊं? आपने मुझे बुलाया था।’
‘हां, आओ और यह देखो’ प्रधानाचार्या गंगादास से बोली। उनकी उंगली एक पेपर की ओर इशारा कर रही थी। ‘पढ़ो इसे’ प्रधानाचार्या ने आदेश दिया। ‘मैं तो इंग्लिश पढऩा नहीं जानता मैडम!’ गंगादास ने घबरा कर उत्तर दिया। ‘मैं आपसे क्षमा चाहता हूं मैडम। यदि कोई गलती हो गयी हो तो। मैं आपका और विद्यालय का पहले से ही बहुत ऋणी हूं, क्योंकि आपने मेरी बिटिया को इस विद्यालय में नि:शुल्क पढऩे की इज़ाज़त दी है।’ गंगादास बिना रुके घबरा कर बोलता चला जा रहा था।
प्रधानाचार्या ने गंगादास को टोका, ‘तुम बेकार में अनुमान लगा रहे हो। थोड़ा इंतज़ार करो, मैं तुम्हारी बिटिया की क्लास टीचर को बुलाती हूं।’ गंगादास सोच रहा था कि क्या उसकी बिटिया से कोई ग़लती हो गयी? अब तो उसकी चिंता और बढ़ गयी थी। क्लास टीचर के पहुंचते ही प्रधानाचार्या बोली, ‘हमने तुम्हारी बिटिया की प्रतिभा को देख और परख कर ही उसे अपने विद्यालय में पढऩे की अनुमति दी थी। अब ये मैडम इस पेपर में जो लिखा है, उसे पढक़र हिंदी में तुम्हें सुनाएंगी।’ कक्षा-अध्यापिका बोली, ‘आज ‘मदर्स डे’ था, मैंने कक्षा में सभी बच्चों को अपनी अपनी मां के बारे में एक लेख लिखने को कहा। अध्यापिका ने गंगादास की बेटी का लिखा हुआ लेख पढऩा शुरू किया।

‘मैं एक गांव में रहती थी। एक ऐसा गांव, जहां शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाओं का आज भी अभाव है। चिकित्सा के अभाव में कितनी ही मांयें दम तोड़ देती हैं बच्चों के जन्म के समय। मेरी मां भी उनमें से एक थीं। उन्होंने मुझे छुआ भी नहीं कि चल बसीं। मेरे पिता ही वे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने मुझे गोद में लिया। बाक़ी की नजऱ में तो मैं ‘अपनी मां को खा गई’ थी। मेरे दादा-दादी चाहते थे कि मेरे पिताजी दुबारा विवाह करके एक पोते को इस दुनिया में लायें ताकि उनका वंश आगे चल सके, परंतु मेरे पिताजी ने उनकी एक न सुनी और दुबारा विवाह करने से मना कर दिया। इस वज़ह से मेरे दादा-दादीजी ने उनको अपने से अलग कर दिया और पिताजी सब कुछ, ज़मीन, खेतीबाड़ी, घर की सुविधा आदि छोड़ कर, मुझे साथ लेकर, शहर चले आये और इसी विद्यालय में माली का कार्य करने लगे। मेरी ज़रूरतों पर मां की तरह हर पल उनका ध्यान रहता है।’
‘यदि संक्षेप में कहूं कि प्यार, देखभाल, दयाभाव और त्याग मां की पहचान हैं, तो मेरे पिताजी उस पहचान पर पूरी तरह से खरे उतरते हैं और मेरे पिताजी विश्व की ‘सबसे अच्छी मां’ हैं। आज ‘मातृ दिवस’ पर मैं अपने पिताजी को यही कहूंगी कि आप संसार के सबसे अच्छे पालक हैं। बहुत गर्व से कहूंगी कि ये जो हमारे विद्यालय के परिश्रमी माली हैं, ये मेरे पिता हैं।’ लेख के आखऱिी शब्द पढ़ते-पढ़ते अध्यापिका का गला भर आया था और प्रधानाचार्या के कार्यालय में शांति छा गयी थी। इस शांति में केवल माली गंगादास के सिसकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। वह केवल हाथ जोड़ कर वहां खड़ा था। उसने उस पेपर को अध्यापिका से लिया और अपने हृदय से लगाकर फूट-फूट कर रो पड़ा।

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