सुरक्षा कवच का साल
एक वैश्विक महामारी के खिलाफ स्वदेशी व देश में निर्मित टीकों की मदद से टीकाकरण का कामयाब साल पूरा करना हमारी उपलब्धि है। इतने कम समय में वैज्ञानिकों ने टीका हासिल किया, राजसत्ता ने इच्छाशक्ति दिखायी और चिकित्सकों, स्वास्थ्यकर्मियों तथा फ्रंट लाइन वर्करों ने उसे अंजाम तक पहुंचाया। सब कुछ जीरो से शुरू करने जैसा था, फिर भी देश ने न केवल सवा अरब से ज्यादा आबादी का ख्याल रखा बल्कि दूसरे देशों की भी मदद की। हम याद रखें कि देश की आर्थिक स्थिति कैसी है, हमारा चिकित्सा तंत्र किस हाल में था और संसाधनों की क्या स्थिति है। दूसरी लहर के दौरान कई बड़े देशों ने वैक्सीन की कच्ची सामग्री देने में आनाकानी की और चीन ने कई तरह के व्यवधान पैदा किये।
इतने बड़े व भौगोलिक जटिलताओं के देश के गांव-देहात में जाकर टीके लगाना निस्संदेह कठिन था। टीकों का उत्पादन और फिर सुरक्षित तापमान में लक्षित आबादी तक पहुंचाना आसान नहीं था। जब राज्यों को टीकाकरण का दायित्व दिया गया तो उस दौरान जो राजनीतिक कोलाहल हुआ, उसे देश ने देखा। सुप्रीम कोर्ट की तल्खी भी देखी। सुखद है कि देश की सत्तर फीसदी वयस्क आबादी को दोनों टीके लगे हैं। करीब 157 करोड़ खुराक दी जा चुकी हैं। वह भी तब जब खुद स्वास्थ्यकर्मियों की जान को भी खतरा था। इनकी प्रतिबद्धता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए राष्ट्र ने डाक टिकट जारी किया। लेकिन ऐसे वक्त में जब रोज नये संक्रमण के मामले दो लाख से अधिक आ रहे हैं और सक्रिय मामलों का आंकड़ा दस लाख पार कर गया है, तो सतर्क रहने की जरूरत है। नये वेरिएंट का खतरा टला नहीं है और वायरस के रूप बदलने की आशंका बनी हुई है। कहा जा रहा है कि ओमीक्रोन के कम घातक होने के कारण केवल अस्पताल में भर्ती होने वाले तथा मरने वालों का ही आंकड़ा जारी किया जाये। साथ ही अनावश्यक प्रतिबंधों में तार्किक ढंग से ढील दी जाये ताकि समाज के अंतिम व्यक्ति के लिये रोजी-रोटी का संकट पैदा न हो। सख्ती एक नई मानवीय त्रासदी को जन्म दे सकती है।
वहीं, यह अच्छी बात है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय मार्च से बारह से पंद्रह साल के बच्चों के टीकाकरण की दिशा में बढ़ रहा है। निस्संदेह, इससे जहां अभिभावकों की चिंता दूर होगी, वहीं स्कूलों को सामान्य ढंग से खोलने में मदद मिलेगी। विकसित देश पहले ही इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। बल्कि सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके बारह साल से छोटे बच्चों के टीकाकरण के लिये सरकार को निर्देश देने की मांग की गई है। वहीं दिव्यांगों के टीकाकरण के बाबत दायर याचिका की सुनवाई के दौरान सरकार ने हलफनामा दायर किया है कि किसी को जबरन टीका लगाने को बाध्य नहीं किया जाएगा। साथ ही दिव्यांगों को टीकाकरण का प्रमाणपत्र दिखाने की बाबत कहा कि किसी मानक प्रक्रिया के तहत यह अनिवार्य नहीं है। बहरहाल, इतना जरूर है कि दिव्यांगों की दिक्कतों के चलते उनके घर-घर जाकर टीका लगाने की जरूरत है। लेकिन जब भारत में कोरोना संक्रमण के मामले अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर हैं तो नागरिकों से सजग-सतर्क व्यवहार की उम्मीद है। हम न भूलें कि इतने बड़े अभियान के बाद करोड़ों लोग ऐसे भी हैं जो आज भी टीका लगाने से बच रहे हैं। तीसरी लहर के आंकड़े बता रहे हैं कि अस्पताल में भर्ती होने वालों व मरने वालों में वे ही लोग ज्यादा हैं, जिन्होंने टीका नहीं लगवाया।
निस्संदेह, दोनों टीके लगाने के बाद भी कुछ लोगों को संक्रमण हुआ है, लेकिन यह कम घातक रहा और अस्पताल में भर्ती होने की नौबत नहीं आयी। बहरहाल, एक अनजानी महामारी से फौरी तौर पर लोगों को सुरक्षा कवच तो मिला ही है। जिन लोगों के लिये पहली-दूसरी लहर में संक्रमण घातक हुआ उनमें से अधिकांश लोग पहले से ही गंभीर रोगों से ग्रस्त थे। बहरहाल, जो टीकाकरण से रह गये हैं उन्हें जल्दी से जल्दी टीका लगवाना चाहिए। तभी महामारी का खात्मा संभव है।