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द्रौपदी मुर्मु के प्रतीक से क्या बदलेगा?

हरिशंकर व्यास

भारतीय जनता पार्टी ने अपनी पार्टी की नेता द्रौपदी मुर्मु को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है। पूरे देश में इस बात की चर्चा हो रही है कि देश में पहली बार कोई अदिवासी राष्ट्रपति बनेगा और वह भी महिला आदिवासी! यह सचमुच गर्व और संतोष करने वाली बात है कि देश के सबसे हाशिए पर के समूह का कोई व्यक्ति देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठेगा। लेकिन सवाल है कि इससे क्या बदल जाएगा? क्या इससे देश के आदिवासियों की दशा में सुधार होगा? क्या जल, जंगल और जमीन की उनकी लड़ाई को कामयाबी मिलेगी? क्या नक्सली होने का ठप्पा उनके ऊपर से हट जाएगा? क्या विकास के नाम पर विस्थापित किए गए लाखों आदिवासियों को उनकी जमीनें वापस मिल जाएंगी? क्या वन संपदा पर उनका अधिकार मान लिया जाएगा? क्या उनके घर उजाड़ कर घने जंगलों में चल रही माइनिंग बंद हो जाएगी? ऐसी कोई भी उम्मीद करना बेमानी है।

इससे पहले भाजपा ने उत्तर प्रदेश के दलित समुदाय से आने वाले रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया था तो क्या उत्तर प्रदेश या देश के दूसरे हिस्सों में दलितों की स्थिति में सुधार हुआ? क्या यह सच नहीं है कि दलित होने की वजह से रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति होने के बावजूद एक मंदिर में घुसने से रोक दिया गया था? क्या देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर बैठे दलित राष्ट्रपति ने हाल की यह खबर देखी है कि एक व्यक्ति ने जोमाटो से खाना मंगवाया था और जब उसे पता चला कि खाना लाने वाला दलित है तो उस व्यक्ति ने न सिर्फ खाना लेने से इनकार कर दिया, बल्कि डिलीवरी ब्वॉय के मुंह पर थूक दिया? क्या दलित राष्ट्रपति ने उत्तराखंड के स्कूल में सवर्ण बच्चों के दलित बच्चों के साथ खाना नहीं खाने वाली खबर देखी थी? दलित उत्पीडऩ की ऐसी अनेक खबरें हर दिन आती हैं। दलित राष्ट्रपति बनाने से समाज में कुछ नहीं बदला। हां, दलितों को झूठे गर्व का अहसास दिला कर वोट की राजनीति जरूर साधी गई।

उससे भी पहले जब एनडीए को पहली बार राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुनने का मौका मिला था तब उसने एपीजे अब्दुल कलाम को उम्मीदवार बनाया था। यानी दलित और आदिवासी से पहले भाजपा ने मुस्लिम राष्ट्रपति बनवाया। लेकिन क्या देश में उससे मुसलमानों की स्थिति में कोई सुधार हुआ? देश के मुसलमान की स्थिति छोड़े, क्या भाजपा का मुसलमानों के प्रति नजरिया बदला? पहला मौका मिलने पर मुस्लिम राष्ट्रपति बनवाने वाली भाजपा हर लगभग मुस्लिम प्रतीक का विरोध करती है और एक पूरे समुदाय को खलनायक बनाने में लगी है। देश के एक दर्जन राज्यों में भाजपा की सरकार है लेकिन कुल सरकारों को मिला कर सिर्फ एक मुस्लिम मंत्री है। केंद्र में भी सिर्फ एक मुस्लिम मंत्री हैं, जिन्हें अगले महीने के पहले हफ्ते में रिटायर हो जाना है। उसके बाद केंद्र सरकार में कोई मुस्लिम मंत्री नहीं रहेगा।

सो, चाहे मुस्लिम उम्मीदवार हो या दलित और आदिवासी हो, इसका सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व है, जिसका राजनीतिक इस्तेमाल होता है। इस तरह के फैसले देश की राजनीति का आईना भी होते हैं, जिनसे पता चलता है कि भारत में सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग किस तरह से फैसला करते हैं और उनके मुख्य सरोकार क्या होते हैं। असल में भारत में फैसले हमेशा शीर्ष पर बैठे व्यक्ति के इलहाम से होते हैं। उसे एक दिन ख्याल आता है कि बड़े नोट बंद कर देने चाहिए तो वह बंद कर देता है। उसे एक दिन इलहाम होता है कि सवा दो सौ साल से सेना में जिस तरीके से भर्ती हो रही थी उससे खर्च बहुत बढ़ रहा है इसलिए बिना पेंशन के सिर्फ चार साल के लिए सैनिक बहाल किए जाएं तो वह इसका फैसला कर देता है। ऐसा ही उसे ख्याल आता है कि देश में अब तक आदिवासी राष्ट्रपति नहीं बना है तो वह एक आदिवासी महिला को उम्मीदवार बना देता है। उसके बाद यह धारणा बनाई जाती है कि ये फैसला आदिवासी समाज के सशक्तिकरण में कारगर होगा। हालांकि बाई डिफॉल्ट कोई सशक्तिकरण हो जाए तो अलग बात है लेकिन कम से कम इस फैसले का उससे कोई लेना-देना नहीं है।

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