आरक्षण और योग्यता
नीट पीजी परीक्षा में आरक्षण को दो सप्ताह पूर्व झंडी दे चुके सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले की तार्किक व्याख्या व्यापक संदर्भों में की है। दरअसल, इस फैसले में देरी की वजह से जूनियर डाक्टरों ने दिल्ली में व्यापक आंदोलन किया था। उसके बाद सात जनवरी को एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने नीट पीजी में 27 फीसदी ओबीसी और दस फीसदी ईडब्ल्यूएस कोटे को मंजूरी दे दी थी। लेकिन कोर्ट ने तब अपने फैसले की तार्किक व्याख्या नहीं की थी। अब कोर्ट ने आरक्षण की सामाजिक न्याय की अवधारणा समेत तमाम सवालों के जवाब देने का प्रयास किया। सबसे महत्वपूर्ण यह कि योग्यता को प्रतियोगी परीक्षा के नतीजे की संकीर्ण परिभाषा तक सीमित नहीं रखा जा सकता क्योंकि इन परीक्षाओं से अवसर की औपचारिक समानता ही हासिल होती है। कोर्ट ने कहा कि आरक्षण और योग्यता में कोई अंतर्विरोध नहीं है बल्कि आरक्षण सामाजिक न्याय की अवधारणा को पुष्ट करके योग्यता का संवर्धन ही करता है।
दरअसल, न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की पीठ का मानना था कि स्नातक हो जाने से किसी व्यक्ति की सामाजिक व आर्थिक स्थिति नहीं बदल जाती। उनकी कमजोर पृष्ठभूमि के मद्देनजर आरक्षण देने की जरूरत महसूस होती है। साथ ही यह भी तर्क दिया कि जब अन्य स्नातकोत्तर पाठयक्रमों में आरक्षण लागू है तो नीट में भी दिया जाना चाहिए। दरअसल, अदालत का मानना था कि योग्यता व आरक्षण परस्पर विरोधी नहीं हैं। महज प्रतियोगी परीक्षा के ही अंकों को योग्यता का मापदंड नहीं माना जा सकता। उसे सामाजिक रूप से भी प्रासंगिक बनाने की जरूरत है। अदालत ने संविधान निर्माताओं की आरक्षण अवधारणा को पुष्ट करते हुए कहा कि देश में पिछड़ापन दूर करने के लिये आरक्षण देना प्रासंगिक है। अपवाद को स्वीकार करते हुए अदालत का मानना था कि संभव है कि कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं जो पिछड़े न होते हुए भी आरक्षण का लाभ उठा रहे हों, लेकिन व्यापक अर्थों में आरक्षण की तार्किकता को नकारा नहीं जा सकता।
दरअसल, कोर्ट की यह व्याख्या इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि ओबीसी आरक्षण व आर्थिक आधार पर आरक्षण का मामला अदालत में विचाराधीन होने के बावजूद केंद्रीय परीक्षाओं में इसे लागू करने के लिये अब अदालत की मंजूरी लेने की आवश्यकता नहीं होगी। दरअसल, अदालत में आरक्षण से जुड़े कई मामलों में याचिका दायर की गई थी। इसमें ईडब्ल्यूएस कोटे का लाभ आठ लाख से कम सालाना आय वालों को दिये जाने के आधार पर सवाल खड़े किये गये थे। दलील दी गई थी कि इतनी आय वाला परिवार आर्थिक रूप से पिछड़ा नहीं हो सकता। इस बाबत केंद्र ने कोर्ट को बताया था कि यह मानक तार्किक है। साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार ने नीट पीजी की काउंसलिंग से पहले आरक्षण लागू कर दिया था, ऐसे में यह नियम विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। साथ की पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि इस मामले में अदालत को पुन: समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि नीट पीजी में ओबीसी और ईडब्ल्यूएस आरक्षण संवैधानिक रूप से मान्य है। इसी क्रम में कोर्ट ने योग्यता व आरक्षण के मुद्दे पर व्यापक दृष्टि को परिभाषित भी किया। कोर्ट का मानना था कि कोई परीक्षा व्यक्ति की वर्तमान सक्षमता को ही दर्शाती है, उसकी क्षमताओं, उत्कृष्टता व सामर्थ्य को पूरी तरह परिभाषित नहीं करती। इसको समृद्ध करने में अनुभव, बाद का प्रशिक्षण और व्यक्तिगत चरित्र की भी भूमिका होती है। इसके साथ ही मानवीय मूल्यों को जोडक़र अदालत ने टिप्पणी की कि उच्च अंक हासिल करने वाला उम्मीदवार यदि अपनी प्रतिभा का उपयोग अच्छे कार्य करने के लिये नहीं करता तो उसे मेधावी नहीं कहा जा सकता। वैसे योग्यता एक सामाजिक अच्छाई है और इसका संरक्षण जरूरी है।
वहीं न्यायालय का स्पष्ट मानना था कि इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप से इस साल की प्रवेश परीक्षा प्रक्रिया में देरी हो सकती थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि देश इस समय महामारी की चुनौती से जूझ रहा है और देश को अधिक डॉक्टरों की जरूरत है। कुल मिलाकर अदालत ने योग्यता को सामाजिक रूप से प्रासंगिक बनाने पर बल दिया।