कांग्रेस के काम आएंगे सिद्धरमैया
अजीत द्विवेदी
आखिरकार कांग्रेस ने तय किया कि सिद्धरमैया कर्नाटक के मुख्यमंत्री होंगे। वे दूसरी बार मुख्यमंत्री बनेंगे। कांग्रेस में शामिल होने के छह साल बाद ही 2013 में ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने थे और उसके बाद से प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति की एक महत्वपूर्ण धुरी बने हुए हैं। वे सरकार के बारे में अच्छी धारणा बनवाने में कामयाब होंगे और अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के बहुत काम आएंगे। अभी कांग्रेस की पहली जरूरत यह थी कि चुनाव प्रचार के दौरान लोगों के मन में उसने जो धारणा बनवाई है वह और मजबूत हो। ध्यान रहे कि कांग्रेस की कर्नाटक जीत में जो मुख्य फैक्टर रहे हैं उनमें से ज्यादातर का प्रतिनिधित्व सिद्धरमैया करते हैं। भाजपा की तत्कालीन सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के कंट्रास्ट में सिद्धरैया ईमानदार चेहरा हैं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने वाले एजेंडे के कंट्रास्ट में सिद्धरमैया एक मजबूत सेकुलर नेता हैं। और अंत में लिंगायत व वोक्कालिगा के बीच बंटी राज्य की राजनीति में सबसे बड़े जातीय समूह के सर्वमान्य नेता हैं।
ध्यान रहे कांग्रेस ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव मुख्य रूप से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ा था और लोगों के मन में यह धारणा बनवाई थी कि प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार 40 फीसदी कमीशन वाली सरकार है। उसके कंट्रास्ट में कांग्रेस सरकार साफ-सुथरी है यह धारणा डीके शिवकुमार के चेहरे से नहीं बन सकती थी। यह धारणा सिद्धरमैया के चेहरे से बनेगी और मजबूत होगी। सिद्धरमैया की छवि एक सख्त प्रशासक और ईमानदार मुख्यमंत्री की रही है। 2013 से 2018 के उनके पांच साल के कार्यकाल में लगे छोटे मोटे आरोपों को छोड़ दें तो उनकी छवि बेदाग रही। उन्होंने ‘ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया’ के अंदाज में राजनीति की। उसके बाद एक साल के लिए कांग्रेस समर्थित जेडीएस की सरकार थी और चार साल भाजपा की सरकार रही, जिसमें बीएस येदियुरप्पा और बसवराज बोम्मई, दो मुख्यमंत्री बने। पांच साल में बने इन तीनों मुख्यमंत्रियों की सरकार का कामकाज विवादों में रहा। सो, सिद्धरमैया के चेहरे से कांग्रेस ईमानदार सरकार देने का अपना दावा मजबूत कर सकती है।
सिद्धरमैया कुरुबा जाति से आते हैं, जो अन्य पिछड़ी जाति यानी ओबीसी समूह की एक मजबूत जाति है। राज्य में कुल ओबीसी आबादी 36 फीसदी है और राज्य में कुरुबा आबादी सात फीसदी है, जो 17 फीसदी लिंगायत और 11 फीसदी वोक्कालिगा के बाद संभवत: सबसे बड़ी जाति है। सिद्धरमैया प्रदेश की राजनीति में निर्विवाद रूप से सबसे बड़े ओबीसी नेता हैं और उनकी वजह से यह समूह कांग्रेस के साथ जुड़ा है। यह जुड़ाव 2013, 2018 और 2023 के तीनों चुनावों में दिखा है। तीनों चुनावों में कांग्रेस का वोट क्रमश: बढ़ता गया है। 2013 में कांग्रेस 36 फीसदी वोट लेकर जीती थी और सिद्धरमैया मुख्यमंत्री बने थे।
पांच साल सरकार चलाने के बाद 2018 में कांग्रेस हार गई थी लेकिन उसका वोट 36 से बढ़ कर 38 फीसदी हो गया था। यह अरसे बाद पहला मौका था, जब किसी इन्कम्बेंट यानी सत्तारूढ़ दल का वोट बढ़ा हो। कांग्रेस हार गई थी लेकिन उसका वोट प्रतिशत बढ़ा था। उसके बाद 2023 में कांग्रेस का वोट बढ़ कर 43 फीसदी हो गया। इन तीनों चुनावों में कांग्रेस को मिले वोट का एक निष्कर्ष यह है कि ओबीसी वोट कांग्रेस के साथ जुड़ा रहा है और सिद्धरमैया के मुख्यमंत्री बनने से उसका जुड़ाव मजबूत होगा। इस निष्कर्ष पर पहुंचने का एक कारण यह भी है कि भाजपा शुरू से लिंगायत वोट की राजनीति करती है और जेडीएस बुनियादी रूप से वोक्कालिगा समुदाय की पार्टी है।
असल में कर्नाटक में पिछड़़ा समुदाय से आने वाले सबसे पहले बड़े नेता देवराज अर्स ने ‘अहिंदा’ शब्द दिया था, जिसके सहारे अल्पसंख्यक, पिछड़ा और दलित की साझा राजनीति को प्रतीकित किया जाता है। कांग्रेस के दिग्गज रहे आरएल जलप्पा ने इस राजनीति को आगे बढ़ाया था और अब सिद्धरमैया इस राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। कर्नाटक की राजनीति में उनका कद इस ‘अहिंदा’ समीकरण से बढ़ा है। वे खुद पिछड़ी जाति से आते हैं लेकिन अल्पसंख्यक और दलित उनके ऊपर समान रूप से भरोसा करते हैं। यह उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत है। इसी वजह से मुख्यमंत्री की रेस में डीके शिवकुमार उनसे पिछड़े। सो, वोट की राजनीति के लिहाज से भी सिद्धरमैया का चयन कांग्रेस के लिए बहुत काम आने वाला साबित होगा।
तीसरी बात धर्मनिरपेक्ष राजनीति की है, जिसका सबसे विश्वसनीय चेहरा सिद्धरमैया का है। वे इस समय कर्नाटक की राजनीति में ‘अहिंदा’ समीकरण के प्रतिनिधि हैं। चुनाव के दौरान एक तरफ भारतीय जनता पार्टी लगातार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराने वाले मुद्दे उठा रही थी तो दूसरी ओर कांग्रेस ने आगे बढ़ कर ऐलान कर दिया कि सत्ता में आई तो नफरत फैलाने वाले संगठनों, चाहे वह पीएफआई हो या बजरंग दल, उन पर पाबंदी लगाएगी।
बजरंग दल पर पाबंदी की घोषणा ने अल्पसंख्यक समुदाय के बीच कांग्रेस का भरोसा बढ़ाया। पहले भी सिद्धरमैया अपने पांच साल के शासन के दौरान तमाम तरह के मठों, मंदिरों, मस्जिदों आदि से दूर रहे। उन्होंने राज्य के धर्मनिरपेक्ष होने की धारणा को मजबूत किया। इस बार भी चुनाव नतीजे आने के बाद डीके शिवकुमार सबसे पहले तुमकुर में लिंगायत समुदाय के सिद्धगंगा मठ में पहुंचे और आशीर्वाद लिया। उनको मुख्यमंत्री बनाने के लिए कई धर्मगुरुओं ने अपील की थी। इसके उलट सिद्धरमैया किसी मंदिर या मठ में नहीं गए। उनके लिए पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समूहों का दबाव था।
गौरतलब है कि राहुल गांधी जब भारत जोड़ो यात्रा कर रहे थे तो उन्होंने धर्मनिरपेक्ष राजनीति पर जोर दिया था।
भारत की राजनीति में पिछले कुछ समय से धर्मनिरपेक्षता की बात करना आत्मघाती माना जाने लगा है क्योंकि सोशल मीडिया में ऐसे लोगों को टुकड़े टुकड़े गैंग या देश विरोधी बताया जाने लगता है। इसके बावजूद राहुल गांधी ने जोखिम लिया और धर्मनिरपेक्ष राजनीति की डोर पकड़े रहे। कर्नाटक में कांग्रेस को इस राजनीति का फायदा हुआ और आगे आने वाले चुनावों में भी कांग्रेस को इसका फायदा हो सकता है। कई राज्यों में प्रादेशिक क्षत्रपों की बेचैनी इसी वजह से बढ़ी है। सो, ईमानदार और साफ-सुथरी छवि, अलग अलग जातीय समूहों में व्यापक जनाधार और धर्मनिरपेक्ष राजनीति ये तीन चीजें ऐसी हैं, जो सिद्धरमैया के पक्ष में गईं और वे शिवकुमार को पीछे छोड़ कर फिर मुख्यमंत्री बने। ये तीनों चीजें आगे की राजनीति में कांग्रेस के बहुत काम आ सकती हैं।